भारतीय संगीत शास्त्र के मुताबिक विविध राग और वाद्यों का सर्जन कब और कैसे हुआ
भारतीय संगीत कला का उद्भव कब और कैसे संजोग में हुआ उसका उल्लेख 3- 4 प्राचीन उल्लेख मिलते हैं लेकिन एक भी संगीन साक्षी अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है । हर प्राचीन साक्ष्य कहता है उसे उससे पहले के गुरु या ग्रंथ से वह मिला गई । उद्भव का पहला खुलासा यह है ब्रह्मा ने शास्त्रबद्ध संगीत की रचना की और शिव जी ने उनको यह कला दी । देवी सरस्वती के बाद शिव जी के पास संगीत के राग रागिनी सीखे । संगीत की शिक्षा में सरस्वती के शिष्य मतलब नारद जी जिन्होंने गंधर्व और किन्नरों के उपरांत भरत को उस कला का दान दिया । फिर भरतने संगीत को समेट लेते नाट्यशास्त्र का सर्जन किया । संगीत कि उन्होंने जो व्याख्या बनाई उसके मुताबिक गायन वादन और नर्तन के संयोजन से संगीत बनता है । जिसका अर्थ है कि स्वयं भारत के तीन अक्षर भ बराबर भाव , र बराबर राग , त बराबर ताल । संगीत कला की उत्पत्ति को बढ़ाने वाला दूसरा मंतव्य वास्तविक साक्ष्य के अभाव में सिर्फ श्रद्धा के विषय जैसा है फिर भी विचारप्रेरक तो है ही । कहा जाता है कि नारद ने सालों तक अखंड योग साधना करके शिवजी को प्रसन्न किया । शिवजी ने प्रसन्न होकर मुनि नारद को संगीत कला के वरदान के उपरांत रूद्र वीणा दी । नारद जी के लिए शिव जी ने अपने मुख से मुख्य 5 राग उत्पन्न किये । जब कि छठ्ठा राग पार्वती के मुख से उतपन्न किया । ये छः मूल राग – भैरव , हिंडोल , मेघ , दीपक , श्री और कौशिक – के साथ कई राग के जन्मदाता होने के कारण जनक के रूप में जाने जाने लगे । समय जाते पर संगीत साधकों ने हर राग जरा पुरुष प्रधान और थोड़ा कठोर लगा इसलिए थोड़ी नजाकत लाने के लिए हर राग को उन्होंने 5 स्त्री प्रधान रागों के साथ या ने पांच रागिनियों के साथ मिलाया और उसके बाद ध्वनि में सूक्ष्म वैविध्य लाने के लिए हर रागिनी को 6 पुत्र दिए परिणाम स्वरूप मुख्य राग का कुल 216 सभ्यों का हुआ। जिनमें कुछ ठीक प्रकार के रूप में समन्वय करो तो लगभग 34,848 राग बनते हैं । जो प्योर मैथमेटिक्स है ।
अति प्राचीन काल के नजदीक में देखें तो सामवेद गीत गोविंद देव स्वामी हरिदास , तानसेन, विष्णु नारायण , भातखंडे बैजू बावरा और अमीर खुसरो जीवन चरित्र भारतीय शास्त्रीय संगीत के विषय पर अद्भुत विज्ञान मिलता है। जिसमें बात यह है कि संगीत के सात स्वर अनुक्रम सा रे गा मा पा धा नि गिने जाते हैं । मूल स्वर संधि और निषाद के प्रथम अक्षरों से बने म्यूजिक की अंग्रेजी परिभाषा में नोट्स जिन को कहा जाता है जबकि उटपटांग संकेतों से लिखी जाती स्वरलिपि के लिए नोटेशन क्षमता है ।
भारतीय संगीत शास्त्र के मुताबिक विविध राग और वाद्यों का सर्जन कब और कैसे हुआ ?
अब समझ में आया है कि स्वर मतलब क्या और राग के साथ उसका क्या संबंध है। दोनों प्रश्नों संगीत कला से जुड़े हैं । लेकिन उत्तर के लिए उसमें संगीत विज्ञान का थोड़ा ध्यान देना आवश्यक है । बहुत जानी-मानी बात है कि शेयर बाजार में जब सब ब्रोकर शोर करते हैं या फिर ऑडिटोरियम में पंडित शिवकुमार शर्मा संतूर बजाते है तब पैदा होने वाले आघात से हवा कंपनी है। श्वेता का कान का पर्दा उस कंपनी को अर्थात क्रमबद्ध सिकुड़ती और फैलती और फिर से सिकुड़ती और फैलती हवा को महसूस करके उसके अनुपात में कमपता है । मतलब श्रवण तंत्र में बिल्कुल उसी पैटर्न का आवाज सुनाई देता है ।आवाज बेशक हमें पसंद नहीं आता क्योंकि आवाज कम और अनियमित होता तो बिल्कुल नहीं भेलपुरी म्यूजिक के बदले आवाज कही जाती है । वह भी स्वाभाविक है । दूसरी ओर बांसुरी वायलिन सेक्सोफोन और क्लेरिनेट इन चार राज्यों का ध्वनि तरंग कभी-कभी महसूस किया करो आपको पता चलेगा की आवाज कौन सी है और संगीत कौन सा है।
कंप संख्या और कंपविस्तार सटीक लाईन में होते हैं । ध्वनि पैदा करने के लिए और वाद्य में तय नाप के छिद्र, तार, दंडी और तांत की व्यवस्था की जाती है। परिणाम स्वरूप आवाज़ की तरंगे अस्टम्पष्टम शोर के बदले प्रिय और व्यवस्थित सुर ही छेड़ते है । एक बास्त याद रखे कि हर वाद्य का तरंग रूप अलग है । इसका कारण यह कि हर वाद्य उसका मूलभूत स्वर के बाद तुरंत कुछ उपस्वर भी पैदा करता है । जिसकी कम संख्या मूलभूत स्वर्ग से दोगुनी 3 या चार गुनी या 6 गुनी होती हैं । कंप विस्तार वाद्य के मुताबिक कम या ज्यादा, एक वाद्य का आवाज दूसरे वाद्य के प्रमाण में बिल्कुल अलग लगता है। जरा सोचिए कि वायोलिन ने और बंसी में कितना बड़ा अंतर होता है । जिस कारण बिल्कुल सिंपल है । वायोलिन का गज़ यानी छड़ी बंधे हुए तार , खोखला तुंबड़ा , वगेरह पुर्जे मूलभूत स्वर के पगले के पीछे बहुत सारे उपसर्ग को आगे पीछे उत्पन्न करते हैं । जबकि बांसूरी में छिद्र के सिवाय कोई दूसरी करामत नहीं है। परिणाम वायोलिन य बंसी बजानेवाले लोग भले हमारे सामने मौजूद हो फिर भी सामान्य श्रोता भी उन दोनों की आवाज को तुरंत पहचान लेते हैं।
भारतीय संगीत शास्त्र के मुताबिक विविध राग और वाद्यों का सर्जन कब और कैसे हुआ ?
उपस्वर का महत्व क्लेरिनेट और सैक्सोफोन के रंग रूप में भी तुरंत मालूम हो जाता है । क्लेरिनेट ने बहुतायत में उप स्वर पैदा किये है , जिसने मूलभूत स्वर को हिला के रख दिया है । परिणाम आवाज़ की तरंग भूकंप नाप की मशीन सिस्मोग्राफ के लिखे हुए तीव्र झटके जैसा लगता है । उप स्वर की प्रबलता का रहस्य यह है कि जब वादक फूंक मारता है तब वह ईख कंपन करके आवाज़ पैदा करती है । वायोलिन के तार से वह छड़ी कहि ज़्यादा मोटी होती है । इसलिए उसका उप स्वर प्रबल होना स्वाभाविक है। क्लेरिनेट की तुलना में सैक्सोफोन का आवाज तरंग रुप बिल्कुल अलग लगता है । यह वाद्य खुद अलग किस्म का है । नीचे कम संख्या का गंभीर आवाज वह निकालता है । आवाज का वॉल्यूम तो ऊँचा लेकिन कंपसंख्या कम होने के कारण उप स्वरों की संख्या ज्यादा नहीं होती । परिणाम यह होता सिर्फ आवाज का भेद कह सकते हैं कि वाद्य सेक्सोफोन है या फिर क्लेरीनेट है ।
अब वाद्यों के भेद की बात निकली है तो उनके मुख्य चार प्रकार है । हर कैटेगरी का संस्कृत में नाम जल्दी याद रहे ऐसा नहीं है फिर भी उसका अर्थ बिलकुल सरल है ।
◆ तत/वितत वाद्य ; इस श्रेणी में दो उप प्रकार को समाया गया है । दोनों में तार के बने वाद्यों का ही समावेश होते हैं। लेकिन तत वाद्य उनको कहा जाता है जिनके तार को छोटी सी ब्लेड या उंगली में पहनी जाने वाली नखली से टंकारे जाते हैं । सितार , तानपुरा , वीणा ,सरोज , बुलबुल तरंग और मंडोलिन तत वाद्य है । वितत वाद्य भी तारवाला ही होता है लेकिन उसमें मिनी धनुष्य के आकार का एक गज इस्तेमाल करके घर्षण पैदा किया जाता है और उस घर्षण के माध्यम से संगीतमय आवाज उत्पन्न की जाती है । जो गज़ सामान्य रूप से घोड़े के पूंछ के बाल का उपयोग करके बनाया जाता है ।
◆ सुषिर वाद्य : फूंक मारके या दूसरी तरफ से हवा का दबाव देकर जिसमें म्यूजिकल ध्वनि पैदा की जाती है उसे सुषिरवाद्य कहते हैं । ध्वनि को जन्म देने वाली प्रक्रिया वैसे हर वाद्य में एक तरह कि नहीं होती । जैसे की क्लेरिनेट में बड़ों की छड़ी कंपनी है और इसलिए उससे संगीतमय ध्वनि जन्म लेती है दूसरी तरफ शरणाई में जब फूंक मारी जाती है तब हैं तब धातु की ब्लेड कंपनी है और छिद्रों पर शास्त्र रूप से उंगलियां दबा के वह कंपन सटीक राग का स्वरूप दिया जा सकता है । बांसुरी में अलग-अलग अंतर पर सिर्फ छिद्र होते हैं । जिसमें से हवा पसार होती है तब अंतर के मुताबिक अलग-अलग स्वर मिलते हैं। हारमोनियम और माउथ ऑर्गन में भी धातु की ब्लेड सरगम बजाती है । ब्युगल , फ्रेंच हॉर्न और ट्रम्पेट में यह कार्य करता है वाल्व !
◆ अवनद्ध वाद्य : संस्कृत में अवनद्ध शब्द का अर्थ है चमड़े से लिपटा हुआ । ढोलक, मृदंग , तबला , नगाड़ा , डमरु , बोंगो ड्रम , खंजरी , डफ को अवनद्ध वाद्य कहे जाते है । अंग्रेजी में उसे कहा जाता है , percussion instrument जिसका मतलब है आघात या ठपकर ! चमड़े से लिपटे होने के साथ उसका कोई लेना देना नहीं है । फिर भी तबला जैसे वाद्य के लिए अंग्रेजी में शब्द प्रयोग भी उसी का प्रयोग होता है। चमड़े की सतह पर किए जाने वाले आघात से ही ध्वनि जन्म लेती है ।
◆ घन वाद्य : नवकर धातु या दूसरे घन पदार्थ से बने वाद्य पर जब हल्का सा प्रहार किया जाते हैं तब मधुर रणकार होते हैं । उसी रणकार को योग्य सुर में ढालकर राग रागिनी उत्पन्न की जा सकती है। यहीं पर भी ध्वनि जन्म आघात के प्रत्याघात के रूप में , लेकिन ढोल , बाजा , तबले में जैसा होता है उसमें कैद हवा के आंदोलन उसके लिए जिम्मेदार नहीं है। घन पदार्थ खुद रणकार करता है । जलतरंग , मंजीरा , करताल , घुंघरू , सब घन वाद्य है ।
आवाज की मधुरता हमेशा आवाज के नियमित तरंग में होती है । क्योंकि उनका सुर कान के परदे में जब पड़ता है तब मन को प्रफुल्लित करता है । इस तरह के सुरू में भी सबसे प्रिय लगते एक सुर को शास्त्रीय संगीत के प्राचीन विद्वानों ने षड्ज के रूप में कल्पना कर ली है और स्वरों में उसे पहला स्थान दिया है । ( षड्ज मतलब ही स्वर ) इंसान हर सेकंड न्यूनतम 20 से लेकर महत्तम 20000 मेगाहर्टज़ की कंपसंख्या का आवाज सुन सकता है । लेकिन जो ध्वनि प्रति सेकंड 250 mhz की हो तो श्रोता को मधुर लगती है । आज युग के संगीतकारों ने प्राचीन विद्वानों के कहे षड्ज की कंपसंख्या 264 होने का स्वीकार किया है इसमें जो 19-20 का फर्क रह जाए तो भी चलेगा । किसी भी वादक के पास कम संख्या नापने की कोई फ्रिकवंसी काउंटर तो होता नही । इसलिए वह अपनी श्रवण इंद्रिय के आधार पर भाग्य का सुर मिला लेते हैं। सब की 264 के बदले 240 mhz को षड्ज मान ले ! इस बात को बहुत महत्व नहीं दिया जाता । नियम की दृष्टि से बात यह है कि उनको बाकी के स्वर उनके तय अनुपात में बैठाने पड़ते है । वरना सुर अच्छे नहीं लगते । बाकी के लिए वास्तु शास्त्रीय गुणोत्तर अनुक्रम में 9/, 5/4 ,4/3 , 3/2 , 5/3 , 15/8 और 2 है।
स्वर | षड्ज सा | ऋषभ रे | गांधार ग | मध्यम म | पंचम प | धैवत ध | निषाद | तार सप्तक षड्ज - सां |
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कंप संख्या [ हर्ट्ज में ] | 264 | 297 | 330 | 352 | 396 | 450 | 495 | 528 |
अनुपात [ अपूर्णाक ] | 1 | 9/8 | 5/4 | 4/3 | 3/2 | 5/3 | 15/8 | 2 |
अनुपात [ दशांश में ] | 1 | 1.125 | 1.250 | 1.333 | 1.500 | 1.666 | 1.875 | 2.000 |
इस सारणी के मुताबिक सा स्वर से रे स्वर 9/8 गुना मतलब 1.125 गुना ज्यादा कम संख्या वाली है। इसलिए सा 264 हार्ट से बनता है तो रे स्वर 264 गुना 98 बराबर 297 होना चाहिए। उसी तरह ग ( गांधार ) का तरंग सा से सवा गुना ज्यादा है। इसलिए उनकी संख्या का 264 गुना पर अनुपात बैठता है । इसलिए उसका अनुपात 264×5/4= 352 mhz जितनी कंप संख्या का है । और बाक़ीनके स्वर उनके निश्चित अनुपात के आधार पर तय होते है । अंतिम सा द्विगुणी स्वर है । इसलिए आरम्भ के सा से वह दुगने तरंग का है । जब ज्यादा कंप संख्या के अवर छेड़े जाते है तब वह रचना आरोह कहलाता है ।
भारतीय संगीत शास्त्र के मुताबिक विविध राग और वाद्यों का सर्जन कब और कैसे हुआ ?
भारतीय शास्त्रीय सरगम से लगती प्राथमिक जानकारी मिलने के बाद में थोड़ा सा सवाल पैदा हो कि विविध प्रकार के वाद्य ऐसे सप्त स्वर निकाल सकते हैं और विभिन्न प्रकार के राग लहरा सकते हैं उसका रहस्य क्या है ?
संगीत का प्रखर विशारद इस रहस्य से पर्दा उठाने स्वाभाविक रूप से आपको बड़ा लंबा चौड़ा भाषण दे देगा । लेकिन संगीत शास्त्र आखिर में तो ध्वनि शास्त्र है । विज्ञान है इसलिए सितार जैसा तंतु वाद्य हो या बंसी जैसा सुशीर वाद्य हो या फिर तबला जैसा अवनद्ध या जलतरण जैसा घन वाद्य कलाकारों को विज्ञान का जिन सिद्धांतों का हर पल सहारा होता है उनके बारे में जानना हमें अच्छा लगता है । सब स्वर याने सप्तक का सही रहस्य उन सिद्धांतों में रहा है ।
आज से लगभग 1100 वर्ष पूर्व सिंधु प्रदेश के कुछ संस्कृत भाषी बंजारे जब पर्शिया के रास्ते से यूरोप की ओर बढ़ गए । इसलिए उनके द्वारा ही शब्द स्वरों का वर्गीकरण का सिद्धांत पहुंचा । ऐसा वर्ण भेद सौरभ भारतीय रूप से किया , इतना ही नहीं उसकी स्वरलिपि भी बना ली । इटाली के संगीतकार जियोसेफो ज़र्लिनो ने Do, Re , So , La , Ti , Do ऐसे स्वरभेद हूबहू भारतीय तौर तरीके से किये। उसकी स्वरलिपि भी बनाई ! ( कॉपी मार ली ! ) अब ये डॉ , रे और सा रे के बीच कोई भेद नहीं है। आधुनिक पश्चिमी संगीत में लेकिन राग के ‘ रागडे ‘ है ! लेकिन उन में भी कुछ फ़िल्म ‘ ध साउंड ऐंड म्यूजिक ‘ के संगीत जैसे कुछ चमत्कार होते भी है ।
आज भारत के संगीत के वाद्य लूप्त हो रहे है । जैसे सारंगी ! दुनिया के सब देशों के सब संगीत वाद्यों की संख्या 250 से ज्यादा नही लेकिन हमारे भारत के कितने है ? दिल्ही के रविन्द्र भवन में संगीत संग्रहालय में 600 प्रकार के वाद्य प्रदर्शन के लिए रखे है । जिनमे से कुछ का आज कला विश्व मे अस्तित्व नहीं रहा है । अफ़सोस की बात है कि सन 1964 , फ़रवरी 13 से वह सार्वजनिक है लेकिन 80% भारतीय ने उसका नाम तक नहीं सुना !
पश्चिम के संगीत करो ने यूरोपी संस्कृति और कला दृष्टि से भारतीय सप्तसुरो से बिल्कुल अलग किस्म का संगीत बनाया । जो भारतीय संगीत की कढंगी नकल है ।
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